असम में नागरिकता के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) के फ़ाइनल ड्राफ्ट के प्रकाशन से बीजेपी में ख़ुशी की लहर है. ये बात बहुत से लोगों को पता है.

लेकिन, एनआरसी के फ़ाइनल ड्राफ़्ट के प्रकाशन से अरबिंदा राजखोवा की अगुवाई वाले पूर्व चरमपंथी संगठन, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ़ असम यानी उल्फ़ा में भी ख़ुशी की लहर है. यही नहीं, एनआरसी के फ़ाइनल ड्राफ़्ट के सार्वजनिक होने से उग्र राष्ट्रवादी और नस्लीय संगठन ऑल असम स्टूडेंट यूनियन यानी आसू भी बहुत ख़ुश है.

मौजूदा मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल भी आसू के पूर्व अध्यक्ष हैं. सोनोवाल उस वक़्त आसू के अध्यक्ष थे जब ये संगठन बेहद सक्रिय था. वहीं, उल्फ़ा बहुत से गैर-असमिया भारतीय नागरिकों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार है.

तो, इससे पहले कि हम एनआरसी पर चर्चा करें, हमें उन किरदारों को समझना होगा, जो एनआरसी के ड्राफ्ट के प्रकाशन से बहुत ख़ुश हैं.

इस कहानी का गैर-बीजेपी पहलू जो बताया जाता है, उसमें मुद्दे की जानकारी, उसकी समझ, सच्चाई की पड़ताल के लिए ज़रूरी मेहनत और कल्पनाशीलता की भारी कमी है. आसान सा तरीक़ा ये है कि मुस्लिम को पीड़ित बता दिया जाए, क्योंकि मुस्लिम समाज भी पीड़ित के तमगे के साथ दोयम दर्जे का नागरिक बनने का आदी है.

जब हिंदू-मुसलमान का झगड़ा बताने की आदत पड़ गई हो, तो सच्ची जानकारियों की तलाश की ज़हमत कौन उठाए.

मगर, अब वक़्त बदल रहा है. इसका ये मतलब है कि ज़मीन से जुड़ी आवाज़ें पूरी ताक़त और साफ़गोई से अपनी बात रख सकती हैं. अपनी बात पहुंचाने के लिए उन्हें दिल्ली दरबार के किसी भी तरह के दरबान की ज़रूरत नहीं है.

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